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ए॒ष प्र॒त्नेन॒ वय॑सा पुना॒नस्ति॒रो वर्पां॑सि दुहि॒तुर्दधा॑नः । वसा॑न॒: शर्म॑ त्रि॒वरू॑थम॒प्सु होते॑व याति॒ सम॑नेषु॒ रेभ॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣa pratnena vayasā punānas tiro varpāṁsi duhitur dadhānaḥ | vasānaḥ śarma trivarūtham apsu hoteva yāti samaneṣu rebhan ||

पद पाठ

ए॒षः । प्र॒त्नेन॑ । वय॑सा । पु॒ना॒नः । ति॒रः । वर्पां॑सि । दु॒हि॒तुः । दधा॑नः । वसा॑नः । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । अ॒प्ऽसु । होता॑ऽइव । या॒ति॒ । सम॑नेषु । रेभ॑न् ॥ ९.९७.४७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:97» मन्त्र:47 | अष्टक:7» अध्याय:4» वर्ग:20» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:47


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) उक्त परमात्मा (प्रत्नेन, वयसा) प्राचीनैश्वर्य्य से (पुनानः) पवित्र करता हुआ और (दुहितुः) पृथिवी के (वर्पांसि) रूपों को (तिरोदधानः) अपने तेज से आच्छादन करता हुआ (शर्म) सुख को (वसानः) धारण करता हुआ (त्रिवरूथम्) सत्त्व रजः तमोरूप तीनों गुणोंवाली प्रकृति को धारण करते हुए (अप्सु) कर्मयज्ञों में यज्ञ करनेवाले (होता, इव) होता के समान (समनेषु) यज्ञों में (रेभन्) शब्दायमान होता हुआ परमात्मा (याति) सर्वत्र व्याप्त हो रहा है ॥४७॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार होता अथवा उद्गातादि ऋत्विग् लोग वेदों का गायन करते हुए इस विविध रचनारूप विराट् का वर्णन करते हैं, इसी प्रकार परमात्मा स्वयं उद्गातारूप होकर वेदरूप गीति के द्वारा चराचर ब्रह्माण्डों का वर्णन करता है अर्थात् प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा इस चराचर जगत् की विविध रचना का हेतु एक भाव परमात्मा ही है, कोई अन्य नहीं ॥४७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) अयं परमात्मा (प्रत्नेन, वयसा) प्राचीनैश्वर्येण (पुनानः) पावयन् (दुहितुः) पृथिव्याः (वर्पांसि) रूपाणि (तिरः, दधानः) स्वतेजसाऽऽच्छादयन् (शर्म) सुखं (वसानः) दधानः (त्रिवरूथं)  त्रिगुणामपि प्रकृतिं धारयन् (अप्सु) कर्मयज्ञेषु (होता, इव) यज्ञकर्तेव (समनेषु) यज्ञेषु (रेभन्) शब्दं कुर्वन् (याति) सर्वत्र व्याप्नोति ॥४७॥